Friday, 19 November 2010

Maazi

मेरे माजी मुझे आवाज़ ना दे
खुश्क आखों से अब अश्क नहीं बहते
चलते जा रहे हैं आवारा मौजो के मानिंद
गुमनामी में ज़िन्दगी बसर करते करते

महसूस करते थे कभी तुझसे जुदा होने का ग़म
मगर उसे भूले हुए बरसो गुज़र गए
जितनी ख्वाहिशे थी उन्हें दफना चुके है हम
अब नए हसरतों की तमन्ना नहीं रखते

महफिलों में जब भी तेरा ज़िक्र आता हैं
भीड़ में हम खुद को तन्हा पाते हैं
बदबख्त दिल से यही आह निकलती हैं
बहुत देर कर दी मेहरबान आते आते

Wednesday, 17 November 2010

Zindagi

लुत्फ़ लेतें हैं ज़िन्दगी का तन्हाइयों को आघोष में लेकर
 महफिलें सजाते हैं वीरानों में परछाइयों को दोस्त बनाकर

कोई रहनुमां नहीं ना सही ज़िन्दगी इससे मुक्कमल तो नहीं होती
ख्वाब टूटते हैं अगर तो टूटें हम जीते हैं नए ख़्वाबों के दम पर

मुहब्बत सिर्फ बज्मे यार का अफसाना नहीं
रिश्ते और भी हैं ज़िन्दगी बसर करने को

आशियाना बनाया था ख्वाब में
टूट गया चोलो अच्छा हुआ
हर मोड़ पे नये आशियाने की धुन में रहते है

tumhaari dosti

तुम्हारी दोस्ती के साए में बहुत जी लिए हम
अब अगर खुद से मुकर जायो तो  कोई बात नहीं
ज़िन्दगी के किसी मकाम पे कभी तो मिलेंगे
तब अगर अजनबी बन जायो तो कोई बात नहीं

याद उनको किया करते हैं जो अपने हो कभी
जुस्तुजू उनकी होती है जो अपने हो कभी
तुमसे नफरत नहीं शिकवा भी न गिला है कोई
हम यह भूले थे तुम इंसान हो खुदा तो नहीं

हमज़बा बन के कभी आये थे मेरे लिए तुम
मेरे जज़्बात की कीमत समझते थे कभी तुम
मोहब्बत से अभी वाकिफ नहीं है लोग कितने
तुम भी अब उनमे गर शामिल हो तो कोई बात नहीं

तुम्हारी दोस्ती के साए में बहुत जी लिए हम

Zindagi Bula Rahi Thi

एक कश्ती पे सवार किसी गुम्दश्ता किनारे पे जा रही थी
अचानक एक सदा आई मुड़ के देखा तो ज़िन्दगी बुला रही थी

चेहरा जाना पहचाना सा था, मुलाक़ात भी कुछ नयी ना थी
पर फासले बढ़ चुके थे दरमियान इतने
न जाने क्यों मुझसे फिर मिलने आ रही थी

ना मुझे मंजिल का पता था ना ही था कोई और ठिकाना
फिर भी एक चाह थी उसकी कही धुंदली सी

इतने में वोह मेरे करीब आके बोली, में यही थी तुझमे कही हमेशा से
मुझे प्यार से सहलाते हुए मुस्कुरा रही थी
मुझे ज़िन्दगी बुला रही थी