Wednesday, 17 November 2010

Zindagi Bula Rahi Thi

एक कश्ती पे सवार किसी गुम्दश्ता किनारे पे जा रही थी
अचानक एक सदा आई मुड़ के देखा तो ज़िन्दगी बुला रही थी

चेहरा जाना पहचाना सा था, मुलाक़ात भी कुछ नयी ना थी
पर फासले बढ़ चुके थे दरमियान इतने
न जाने क्यों मुझसे फिर मिलने आ रही थी

ना मुझे मंजिल का पता था ना ही था कोई और ठिकाना
फिर भी एक चाह थी उसकी कही धुंदली सी

इतने में वोह मेरे करीब आके बोली, में यही थी तुझमे कही हमेशा से
मुझे प्यार से सहलाते हुए मुस्कुरा रही थी
मुझे ज़िन्दगी बुला रही थी

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