एक कश्ती पे सवार किसी गुम्दश्ता किनारे पे जा रही थी
अचानक एक सदा आई मुड़ के देखा तो ज़िन्दगी बुला रही थी
चेहरा जाना पहचाना सा था, मुलाक़ात भी कुछ नयी ना थी
पर फासले बढ़ चुके थे दरमियान इतने
न जाने क्यों मुझसे फिर मिलने आ रही थी
ना मुझे मंजिल का पता था ना ही था कोई और ठिकाना
फिर भी एक चाह थी उसकी कही धुंदली सी
इतने में वोह मेरे करीब आके बोली, में यही थी तुझमे कही हमेशा से
मुझे प्यार से सहलाते हुए मुस्कुरा रही थी
मुझे ज़िन्दगी बुला रही थी
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